Biography

May 09, 2017 0 Comments

जन्म:विक्रमी संवत 1455 (सन 13 9 8 ई 0)
मृत्यु:विक्रमी संवत 1551 (सन 14 9 4 ई 0)
मगहर , उत्तर प्रदेश , भारत
कार्यक्षेत्र:कवि, भक्त, सूत काटकर कपड़े बनाना
राष्ट्रीयता:भारतीय
भाषा :हिंदी
काल:भक्ति काल
विधा :कविता
विषय:सामाजिक , आध्यात्मिक
साहित्यिक 
आन्दोलन :
भक्ति आंदोलन
प्रमुख कृति (यं):बीजक “साखी, सबद, रमानी”
इनसे प्रभावित:दादू , नानक , पीपा , हजारी प्रसाद द्विवेदी
कबीर हिंदी साहित्य का भक्ति काललीन युग में ज्ञान-माहिरी- निर्गुण शाखा का काव्यधारा के प्रवर्तक थे।इनकी रचनाओं ने हिंदी प्रदेश का भक्ति आंदोलनको गहरा स्तर तक प्रभावित किया।

कबीर के 20 मुख्य दोहे

यह 20 दोहे हर एक व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक सोच लाती है।
  1. 1 पोथी पढ़ि पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय,
              ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित हाँ।
  1. 2 चाह मी मिटी, चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह,
               जोको कुछ नहीं चाहिए वह कहेनशहा
  1. 3 बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
             जो दिल खोजा आपना, मुझे बुरा नहीं कोय
  1. 4 माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोये
              एक दिन ऐसा आयेगा मैं रौंन्डू तोय।
  1. 5 धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ हाँ,
              माली सीचे सौ घड़िया, ॠतु आए फल हां।
  1. 6 दुःख में सुमिरन सब कर, सुख में करै न कोय
              जो सुख में सुमिरन कर दुःख काहे का हाँ
  1. 7 साधु ऐसा करना, जैसा सुप सुभाय,
              सार-सार को गहि रहै, थोत देई उड़ाय
  1. 8 माला फेरत जुग भया, फेरा न मन का फेर,
              कर के मनका डर दे, मन का मनका फेर
  1. 9 बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलते जानी,
              हई तराजू तूौली की, तब मुख से अनी
  1. 10 गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागु पाए,
               बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो मिलय
  1. 11 मक्की गुड में गडी रह, पंख होठ लिपटेये,
               हाथ मिला और सिर ढूंढें, लालच बुरी बलाये।
  1. 12 कबीर संगत साधु की, नित प्रति कीजै जाय,
              दुरमति दूर बहाव, देशी सुमती बताइए
  1. 13 निंदक नियरे राखे, ओंगन कुटी छये,
               बिन पानी, साबुन नहीं, निर्मल कर सुभाय भी।
  1. 14 साईं इतनी देय, जा में परिवार का समायोजन,
               मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूस जाय।
  1. 15 दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
               जबरदार ज्यों पत्ता झड़, बहुरि न लागे दार
  1. 16 बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे वृक्ष खजूर,
                पंथी को छाया नहीं मिला
  1. 17 तिनका कबहुँ न निंदेई, जो पावनवन हाँ,
                कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, ते पीर घनेरी हां।
  1. 18 मया मरी न मरे मरे, मर-मर गये बॉडी,
               आशा तरष्टना ना मरी, कहें दास कबीर।
  1. 19 जाति न पूछो साधु की, पूछो ज्ञान,
               मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान
  1. 20 अति के भला न बोलना, अति की भली न चूप,
               अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप [1]

जन्म स्थान

जन्मस्थान के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं लेकिन अधिकांश अधिकांश विद्वान इनके जन्म केशी में ही मानते हैं, जिनकी पुष्टि स्वयं कबीर का यह कथन भी करता है। ” काशी में परगट भए, रामानंद चेताये “

गुरु

कबीर के गुरु की सम्बन्ध में प्रचलित कथन है कि कबीर को उचित गुरु की खोज है। उन्होंने कहा कि कबीर ने अपने मन में ठान लिया लेकिन वह कबीर ने अपनी मर्जी में ठान लिया था कि स्वामी रामानंद को हर कीमत पर अपना गुरु बनाते हैं, इसके लिए कबीर का मन में एक विचार आये कि स्वामी रामनाथंद जी सुबह चार बजे गंगा बाटगेट्स थे, पहले ही उनके जाने के रास्ते में सीढ़ियों लेट जाँगा और उन्होंने ऐसा ही किया था। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पंसचगागा घाट की सीढ़ियों पर गिर गया। रामनंद जी गंगासनान करने के लिए सीढ़ियों उतरते थे कि तब केवल उनके पैर कबीर के शरीर पर पड़ गए थे। उनके मुख से तत्काल ‘राम-राम’ शब्द निकल पड़ा उसी राम को कबीर ने शुरू किया-मन्त्र मान लिया और राममनंद जी को अपना गुरु स्वीकार किया। केबीर के ही शब्दों में- “काशी में परगट भये, रामानंद सावये”

व्यवसाय

जीविकोपार्जन के लिए कबीर जुलाहे का काम करते थे

भाषा

कबीर की भाषा सधुक्खी है इनकी भाषा में हिंदी भाषा के सभी बोलियों की भाषा शामिल हैं राजस्थानी, हरयाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवध, ब्रह्भाभा की शब्द की बहुलता है।

कृतियों

शिष्यों ने उनके विचारियों को संग्रह “बीजक” नाम की ग्रंथ मे किया जिसका तीन मुख्य भाग हैं: साखी, सबद (पद), रमनी
  • साखी : संस्कृत ‘साक्षी, शब्द का विकृत रूप है और धर्मोपदेश के अर्थ में प्रयोग किया हुआ है। अधिकांश साखियाँ दोहरों में लिखी गई हैं लेकिन उसमें भी सोंटे का भी प्रयोग होता है। कबीर की शिक्षाओं और सिद्धांतों के निरूपण में अधिकांश साखी में हुआ है।
  • सबद गेय पद है जिसमें पूरी तरह से संगीतात्मकता मौजूद है। इन में उपदेशात्मकता स्थान पर भाईवेश की प्रधानता है; क्योंकि ये कबीर के प्रेम और अंत्येष्टि साधना की अभिव्यक्ति हुई है।
  • रमीनी चौपाई में लिखा गया है कि इसमें कबीर का रहस्यवादी और दार्शनिक विचारों को प्रकट किया गया है।

धर्म के प्रति

साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था। कबीर पढ़े-लिखे न थे- ‘मसंक कागज़ छूव न, कलम गहि नहिं हाथ।’ उन्हें स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुंह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिखा था। आप सभी के विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिश्तनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते हैं और कर्मकांड के घोर विरोधियों को अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे।
वे कभी कहते हैं-
‘ हरिमोर पिउ, मैं राम का बहुरिया’ तो कभी कहते हैं, ‘हरि जननी मैं बालक तोरा’
और कभी “बडा हुआ तो क्या हुआ जेएसै”
उस समय हिंदू जनता पर मुस्लिम आतंक की कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस तरह से व्यवस्थित किया, जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनके अनुयायी हो गया। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुंच सके। इस से दोनों संप्रदायों के मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गभिक्षण के विरोधी थे कबीर को शांतिपूर्ण जीवन प्रिय और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव और संत प्रवृत्ति का कारण आज भी विदेशों में भी उनके समादर हो रहा है।
उसी स्थिति में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण और आत्मनिरीक्षण करने के लिए देश के विभिन्न भागों की यात्राएं कीं इसी क्रम में वे कालिंजर जिले के पिथौराबाद शहर में पहुंचे थे। वहां रामकृष्ण का छोटा सा मन्दिर था वहां पर संत भगवान गोसवमी की जिज्ञासु साधक थे लेकिन उनके तर्कों का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था। संत काबीर से उनका विचार-विनिमय हुआ कबीर की एक साखी ने उन के मन पर गहरा असर किया-
‘बन ते भागा बिधर था, करहा अपना बान करहा बेदन कासों कहहे, कर कर को को जानो .. ‘
वन से भाग कर बाहेलिये के खोए हुए गड़धे में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहा?
सारांश यह है कि धर्म की जिज्ञासा से प्रेरित होकर भगवान गोसाई अपना घर छोड़कर बाहर निकल आये और हरिवीसी संप्रदाय के गड्ढे में गिरने अकेले निर्वासित हो गए थे और असावधान स्थिति में आए थे।
मूर्त्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने एक साजी हजिर कर दिया-
तो मैं पजॉं पहारे या तो ते चाकी भली, पीसी खाय संसार ..

कबीर के राम

कबीर के राम तो अगम हैं और संसार का कण-कण में विराजते हैं। कबीर के राम इस्लाम के एकेश्वरवादी, एकसत्तावादी भगवान भी नहीं हैं। इस्लाम में ख़ुदा या अल्लाह को सभी जगत और जीवों से अलग और परम समर्थ माना जाता है। परन्तु कबीर के राम परम समर्थ भले हो, परन्तु सभी जीवों और जग से भिन्न तो कदापि नहीं हैं। बल्कि इसके विपरीत वे तो सबमें व्याप्त रहने वाले रमता राम हैं वह कहते हैं
व्यापक ब्रह्म सबनीमैं एके, को पंडित को जोगी रावण-राव कवनसूं कवन वेद को रोगी
कबीर राम के किसी विशेष स्वरूप की कल्पना करना नहीं है, क्योंकि रूपासार का कल्पना करना ही राम किसी खास ढाँचे (फ्रेम) में बँध जाते हैं, जो कबीर को किसी भी स्थिति में अनुमोदित नहीं। कबीर राम की अवधारणा को एक अलग और व्यापक स्वरूप देना चाहेंगे इसके कुछ विशेष कारण हैं, जिनकी चर्चा हम इस लेख में आगे हैं। किन्तु इसके बावजूद कबीर राम के साथ एक व्यक्तिगत परिवार की तरह संबंध संबंध निश्चित हैं। राम के साथ उनकी प्रेम में उनकी अलौकिक और महिमाशाली शक्ति को एक क्षण भी भूल गए थे, लेकिन सहज प्रेमपूर्ण मानवीय संबंधों की धरती पर प्रतिष्ठित है।
कबीर नाम में विश्वास रखते हैं, रूप में नहीं यद्यपि भक्ति-संवेदना के सिद्धांतों में यह बात सामान्य रूप से प्रतिष्ठित है कि ‘नाम रूप से बढ़ते है’, लेकिन कबीर ने इस सामान्य सिद्धांत का क्रांतिधर्मी उपयोग किया था।कबीर ने राम-नाम के साथ लोकमानस में शताब्दि से रचे-बसे संश्लिष्ट भावों को उम्दा और व्यापक रूप देकर उसे पुराण-प्रपादित किया गया था, ब्राह्मणवादी विचारधारा के खंटे में बाँध जाने से रोक की कोशिश की।
कबीर के राम नर्गुण-सगुन के भेद से परे हैं वास्तव में उन्होंने अपने राम को शास्त्र-प्रपादित अवतार, सागुण, वर्चस्वशील वर्णाश्रम व्यवस्था के संरक्षक राम से अलग करने के लिए ही ‘निर्गुण राम’ शब्द का प्रयोग किया- ‘निर्गुण राम जपहु रे भाई।’ इस ‘निर्गुण’ शब्द को भ्रम में पड़ने की ज़रूरत नहीं है। कबीर का आशय इस शब्द से सिर्फ इतना है कि ईश्वर को कोई नाम, रूप, गुण, काल आदि की सीमाएं में बाँध नहीं जा सकते। जो सारी सीमाओं से परे हैं और फिर भी हर कोई हैं, वही कबीर के निर्गुण राम हैं। इसे उन्होंने ‘रमता राम’ नाम दिया है। अपने राम को निर्गुण अनुष्ठान के बावजूद केबीर के साथ मानव प्रेम संबंधों की तरह रिश्ते की बात करते हैं। कभी वह दास भाव से स्वामी को कभी भी राम से मधुरता भाव से अपनी प्रेमी या पति मान लेते हैं। कभी-कभी वे राम को वात्सल्य मूर्ति के रूप में माँ मान लेते हैं और खुद को उनकी बेटानिर्गुण-निरंकु ब्रह्म के साथ भी इस तरह के सरस, सहज, मानवता प्रेम काबीर की भक्ति की विलक्षणता है। यह दुविधा और समस्या दूसरों को भी भले हो सकता है कि जो राम के साथ कबीर इतने अनन्य, मानव-संबंधपरक प्यार करता है, वह भला निर्गुण कैसे हो सकता है, लेकिन खुद को कैबिर के लिए यह समस्या नहीं है।
वह कहते हैं भी हैं
“संतौ, धोखा कासूं कहिए। गुनामाँ निरगुन, निरगुनमं गुन, बाट छन्दि क्यूं बहिया! “नहीं है
प्रोफेसर महावीर सरुन जैन ने कबीर के राम और कबीर की साधना के संबंध में अपनी विचारों को व्यक्त करते हुए कहा है: “कबीर का सारा जीवन सत्य की तलाश और असत्य का खंडन में व्यतीत हुआ।” काबीर की साधना ” मानने से नहीं, उनके लिए राम रूप नहीं है, दशरथी राम नहीं है, उनके राम किसी के नाम पर साधना के प्रतीक हैं। उनके राम किसी संप्रदाय, जाति या देश की सीमाएं प्रकृति की कण-कण में, अंग-अंग में रमण करने के लिए भी, जिसे अनंग स्पर्श नहीं हो सकता है, वे अलख, अविनाशी, परम तत्व ही राम हैं। उनके राम मनुष्य और मनुष्य के बीच कोई भेद-भाव का भाव से ऊपर उठकर महाभाव या प्रेम के आराध्य हैं:
‘प्रेम जगजी विरह को, विरह जीववै पीयू, पीयू जीववै जीव, जोइ पीउ सोई जीउ’ – जो पीऊ है, वही जीव है।इसी वजह से उनका पूरा साधना ” हंस उबारन आया की साधना है। इस हंस का उबारना पठियों को पढ़ने से नहीं हो सकता है, ढाई आखर प्रेम के आचरण से ही हो सकता है। धर्म ढंढने की चीज नहीं है, जीवन में आचरण करने की निरंतर सदा साधना है। उनके साधना प्रेम से शुरू करना होगा। इतना गहरा प्रेम करो कि वही आप के लिए परमात्मा हो जाएंगे। उसको प्राप्त करने के इतने उत्कटता हो जाए कि सबसे विराग्य हो जाए, विरह भाव हो जाए, परन्तु उस ध्यान समाधि में पीयू जाग्रत हो सकता है। वही पीयू आपका अर्न्तम में बैठे जीव को जागृत हो सकता है जोई पीव है सोई जीउ है तब आप पूरे संसार से प्रेम करोगे, तब संसार का हर जीव अपने प्यार का पात्र बन जाएगा। सारा अहंकार, सारा द्वेष दूर हो जाएगा फिर महाभाव जगेगा। इसी महाभाव से पूरे संसार पीयू का घर हो जाता है।
सूरज चन्द्र का एक ही उदयरा, सब यह पसरा ब्रह्म पसारा
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जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी
फूटा कुम्भ जल जलया समाना, यह तथ कथौ गियानी। “

मृत्यु

कबीर की दृढ़ मान्यता है कि कर्मों के अनुसार ही गति मिलती है स्थान विशेष कारण नहीं। क्योंकि ये लोग मानते हैं कि काशी में मरने पर स्वर्ग और मगर में मरने पर नरक मिलते हैं। सद्गुरु कबीर साहेब के जन्म के बारे में कई भ्रामक स्थितियां उनकी सरल, सहज, समाज को सीधे चोट करने वाले शब्दों से पाखंडी ब्राह्मणों और मोलवीसों ने फेलैयी थाई का जन्म लिया। परन्तु वर्तमान समय में विज्ञान भी मानता है कि वह जो जन्म लेता है, वह सशरीर म्त्वु को प्राप्त होता है पर सद्गुरु कबीर साहेब के साथ ऐसा नहीं है वह अजिंम है तो तब ही वे हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए अवतरित हुए और हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए समाज धर्म की ऐसी शिक्षा देने के सब में रमने वाला राम और रहम एक ही है। उन्होंने उनहरों में अर्न्धाध्यान हो संदेश दिया आज भी यहां पर मजार और समाधि स्थित है। जहां सदगुरु कबीर के शरीर की जगह पर स्थित पुष्पों से उनका निस्तारण किया गया था। अर्थात् उनके शरीर में ही नहीं, यह अजनमे थे अवतारारी पुरुष हैं .

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